समुद्र में जो नमक है, उसका अधिकांश करोड़ों वर्षों के दौरान नदियों द्वारा वहाँ पहुँचाया गया है। जब समुद्र का पानी वाष्पीकृत होता है, तो वह हवा में उठकर बादल बन जाता है। यही बादल जमीनी इलाकों में पहुँचकर वर्षा के रूप में बरसता है। बरसते समय उसका संपर्क हवा में मौजूद कार्बन डाइआक्साइड, सल्फर डाइआक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड आदि गैसों से होता है। ये गैसें पानी में घुल जाती हैं, जिससे वर्षा जल हल्का सा अम्लीय हो जाता है। जब यह अम्लीय जल चट्टानों और जमीन पर गिरता है, वह उनमें मौजूद लवणों को घुला लेता है। सतह से जब यह पानी बहकर नदियों में पहुँचता है, तो नदी के पानी में भी यह लवणांश आ जाता है, पर लवणांश बहुत कम होने से हमें नदी का पानी मीठा ही लगता है। नदियों का यह लवणयुक्त पानी समुद्रों में पहुँचता है। इस तरह धीरे-धीरे करोड़ों सालों से नदियों द्वारा लाया गया नमक समुद्रों में इकट्ठा होता आ रहा है।
समुद्रों के तल में भी चट्टानें मौजूद हैं, जिनके लवण भी समुद्र जल में घुलते रहते हैं। इसी तरह समुद्रों के नीचे ज्वालामुखियाँ भी हैं, जो भी समय-समय पर फटकर लावा और क्लोरीन, सल्फर डाइआक्साइड आदि गैसें छोड़ती रहती हैं। समुद्र में सोडियम आदि पदार्थ भी हैं। इनके साथ क्लोरीन आदि की अभिक्रिया से लवण बन जाते हैं। खाने का नमक सोडियम और क्लोरीन का यौगिक ही होता है (NaCl)। तो इस तरह भी समुद्र में नमक बनता रहता है।
समुद्र जल में विद्यमान नमक तो उसी में रहता है, पर सूर्य की गरमी से समुद्र का जल वाष्पीकृत होकर समुद्र से बाहर आता रहता है, और आकाश में घनीभूत होकर बादल बन जाता है। यह वाष्प शुद्ध जल होता है, यानी उसमें लवणांश नहीं रहता। इस तरह समुद्र का पानी तो निरंतर पुनश्चक्रित होता रहता है, पर लवणांश समुद्र में बस जमा ही होता जाता है।
इन्हीं प्रक्रियाओं के कारण करोड़ों वर्षों में समुद्र जल खारा हो गया है।
आप सोच रहे होंगे, कि उपर्युक्त प्रक्रियाओं के निरंतर चलते रहने के कारण समुद्र का खारापन उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता होगा। पर ऐसा नहीं है। समुद्र के अंदर ऐसी कई प्रक्रियाएं होती रहती हैं, जिनके कारण समुद्र जल का लवणांश समुद्र तल में निक्षेपित भी होता रहता है। इसमें कुछ शल्क-धारी जीव-जंतु भी योगदान करते हैं। ये जीवधारी अपना खोल बनाने के लिए समुद्र जल से लवणांश लेते रहते हैं।