Saturday 8 September 2018

भारतीय करेंसी कमजोर होने के क्या मुख्य कारण हैं

What are the main reasons for Indian rupee weakness? (Author: Rajeev Ranjan)


वर्तमान समय में भारत की मुद्रा “रुपये” के मूल्य में लगातार गिरावट होती जा रही है और जनवरी 2018 से सितम्बर के महीने तक इसके मूल्य में 12% की गिरावट आ चुकी है और निवेशकों को अभी एक डॉलर को खरीदने के लिए 71.72 रुपये खर्च करने पर रहे हैं जो कि पूर्व की सबसे निचली स्थिति 68.80 रुपये/डॉलर के स्तर से भी नीचे चला गया है।  ब्रिक्स समूह (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) में रूस की मुद्रा “रूबल” के बाद सिर्फ भारतीय रुपया ही है जिसके मूल्य में सबसे अधिक गिरावट आई है।     वर्ष 1947 में भारत की आजादी के बाद से भारतीय रूपये का 3 बार अवमूल्यन हुआ है।  1947 में डॉलर और रुपये के बीच में विनिमय दर 1USD = 1INR थी, लेकिन आज आपको एक अमेरिकी डॉलर खरीदने के लिए 71.72 रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं।     जब किसी देश की मुद्रा के बाह्य मूल्य में कमी होती है जबकि मुद्रा का आंतरिक मूल्य स्थिर रहता है, तो ऐसी दशा को मुद्रा का अवमूल्यन (devaluation) कहा जाता है.     विनिमय दर का अर्थ    विनिमय दर का अर्थ दो अलग अलग मुद्राओं की सापेक्ष कीमत है, अर्थात “ एक मुद्रा के सापेक्ष दूसरी मुद्रा का मूल्य”।  वह बाजार जिसमें विभिन्न देशों की मुद्राओं का विनिमय होता है उसे विदेशी मुद्रा बाजार कहा जाता है।   स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने भी आईएमएफ की सममूल्य प्रणाली (Par Value System )का पालन किया था। 15 अगस्त 1947 को भारतीय रुपये और अमेरिकी डॉलर के बीच विनिमय दर एक-दूसरे के बराबर (अर्थात 1USD = 1INR) थी।     लेकिन वर्तमान समय में ऐसा क्या बदल गया है कि भारत की मुद्रा, अमेरिकी डॉलर सहित अन्य मुद्राओं की तुलना में कमजोर ही होती जा रही है। आइये इस लेख में भारत की मुद्रा के मूल्य में हाल की गिरावट के कारणों को जानते हैं।     वर्तमान समय में डॉलर की तुलना में रुपये के मूल्य में कमी के लिए निम्न कारण जिम्मेदार हैं    1. कच्चे तेल के दामों में वृद्धि     जैसा कि हम सभी को पता है कि भारत अपनी जरुरत का केवल 17%तेल ही पैदा करता है और बकाया का 83% आयात करता है और यही कारण है कि भारत के आयात बिल में सबसे बड़ा हिस्सा कच्चे तेल के मूल्यों का होता है।     कंसल्टेंसी फर्म वुड मैकेंजी की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की कच्चे तेल की प्रतिदिन की मांग 2018 में वर्ष 2017 की तुलना में दुगुनी अर्थात 190,000 बैरल (1 बैरल = 159 लीटर) हो जाएगी जो कि पिछले वर्ष केवल 93,000 बैरल प्रतिदिन थी।     भारत ने वित्त वर्ष 2016-17 में 213.93 मिलियन टन कच्चे तेल का आयात किया था जिस पर कुल 70.196 अरब डॉलर का खर्च आया था लेकिन 2017-18 में इसमें 25% की वृद्धि होने की  संभावना है और आयात बिल बढ़कर 87.725 अरब डॉलर पर पहुँच जाने की संभावना है।     आर्थिक सर्वेक्षण 2018 का अनुमान है कि यदि कच्चे तेल की कीमत में 10 डॉलर प्रति बैरल की वृद्धि हो जाती है तो इससे भारत की GDP में 0.2-0.3 प्रतिशत की कमी आ जाती है।     इस प्रकार तय है कि जैसे-जैसे भारत में कच्चे तेल की मांग बढ़ेगी, सरकार का आयात बिल बढेगा, इस कारण सरकार को इराक और सऊदी अरब सहित अन्य देशों को डॉलर में अधिक भुगतान करना पड़ेगा, जिससे डॉलर की मांग बढ़ेगी और इसकी तुलना में रूपए का मूल्य कम होगा।     2. अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध     अमेरिका ने चीन, भारत और यूरोपियन यूनियन सहित कई देशों के आयातित उत्पादों पर कर बढ़ाने का फैसला लिया है जिसके बदले में इन देशों ने भी अमेरिका के उत्पादों पर कर बढ़ा दिया है जिसके कारण इन उत्पादों की आयातित कीमतें बढ़ना लाजिमी है।     ऐसी स्थिति में भारत द्वारा आयात की जाने वाली वस्तुओं के दाम भी बढ़ जायेंगे किसके कारण भारत को अधिक डॉलर भुगतान के रूप में खर्च करने पड़ेंगे इसका परिणाम यह होगा कि भारत द्वारा डॉलर की मांग बढ़ जायेगी, बाजार में भारतीय रुपये की पूर्ती बढ़ जाएगी और इस कारण डॉलर के मूल्यों में वृद्धि होगी और रुपये के मूल्यों में कमी. अर्थात एक डॉलर को खरीदने के लिए ज्यादा रुपये खर्च करने पड़ेंगे।     3. भारत का बढ़ता व्यापार घाटा     जब किसी देश का निर्यात बिल उसके आयात बिल की तुलना में घट जाता है तो इस स्थिति को व्यापार घाटा कहते हैं। वित्त वर्ष 2018 में भारत का व्यापार घाटा 156.8 अरब डॉलर हो गया है जो कि पिछले वित्त वर्ष में 105.72 अरब डॉलर था। इसका सीधा सा मतलब कि भारत को डॉलर या अन्य विदेशी मुद्रा में रूप में निर्यात से जितनी आय प्राप्त हो रही है उससे ज्यादा आयात की गयी वस्तुओं और सेवाओं पर खर्च करनी पड़ रही है।अर्थात भारत के खजाने/बाजार में डॉलर कम हो रहे हैं जबकि मांग अधिक है, और “मांग के नियम” के अनुसार “जिस वस्तु की पूर्ती घट जाती है उसकी कीमत बढ़ जाती है। ”      4. भारत से पूँजी का बहिर्गमन     पूँजी का निकास उस दशा को कहते हैं जब भारत से विदेशी निवेशक या देश के निवेशक अपना रुपया निकालकर किसी और देश में निवेश कर देते हैं. ज्ञातव्य है कि जब भारत और विदेश के निवेशक भारत के बाजार से रुपया निकालते है तो वे दुनिया में सब जगह स्वीकार की जाने वाली मुद्रा अर्थात डॉलर में ही निकालते हैं जिसके कारण भारत में डॉलर की मांग बढ़ जाती है साथ ही इसका मूल्य भी बढ़ जाता है।     नेशनल सिक्योरिटीज डिपोजिटरी लिमिटेड (NSDL)के आंकड़ों के मुताबिक, इस साल अप्रैल के अंत तक भारत से 244.44 मिलियन डॉलर रुपया देश के बाहर चला गया है।  जो कि इसी अवधि में पिछले साल 30.78 बढ़ा था।     5 राजनीतिक अस्थिरता का माहौल     जैसा कि कई सर्वेक्षणों में सामने आया है कि भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री मोदी जी की लोकप्रियता दिनों दिन घटती जा रही है इस स्थिति में विदेशी निवेशक कंफ्यूज हो रहे हैं कि अगले साल यही सरकार रहेगी या बदल जाएगी और यदि नई सरकार बन जाती है तो विदेशी निवेश की नीतियों में किस तरह का परिवर्तन होगा इस बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। लिहाजा विदेशी निवेशक भारत से बेहतर रिटर्न देने वाले देशों में निवेश करने का मन बना रहे हैं और भारत से अपना धन, डॉलर के रूप में बाहर ले जा रहे हैं।  इसका अंतिम परिणाम डॉलर के मूल्यों में वृद्धि और रुपये के मूल्यों में कमी के रूप में सामने आ रहा है।

वर्तमान समय में भारत की मुद्रा “रुपये” के मूल्य में लगातार गिरावट होती जा रही है और जनवरी 2018 से सितम्बर के महीने तक इसके मूल्य में 12% की गिरावट आ चुकी है और निवेशकों को अभी एक डॉलर को खरीदने के लिए 72 रुपये खर्च करने पर रहे हैं जो कि पूर्व की सबसे निचली स्थिति 68.80 रुपये/डॉलर के स्तर से भी नीचे चला गया है ब्रिक्स समूह (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) में रूस की मुद्रा “रूबल” के बाद सिर्फ भारतीय रुपया ही है जिसके मूल्य में सबसे अधिक गिरावट आई है। 

वर्ष 1947 में भारत की आजादी के बाद से भारतीय रूपये का 3 बार अवमूल्यन हुआ है।  1947 में डॉलर और रुपये के बीच में विनिमय दर 1USD = 1INR थी, लेकिन आज आपको एक अमेरिकी डॉलर खरीदने के लिए 72 रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं। 

जब किसी देश की मुद्रा के बाह्य मूल्य में कमी होती है जबकि मुद्रा का आंतरिक मूल्य स्थिर रहता है, तो ऐसी दशा को मुद्रा का अवमूल्यन (devaluation) कहा जाता है। 

विनिमय दर का अर्थ

विनिमय दर का अर्थ दो अलग अलग मुद्राओं की सापेक्ष कीमत है, अर्थात “ एक मुद्रा के सापेक्ष दूसरी मुद्रा का मूल्य”।  वह बाजार जिसमें विभिन्न देशों की मुद्राओं का विनिमय होता है उसे विदेशी मुद्रा बाजार कहा जाता है। 
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने भी आईएमएफ की सममूल्य प्रणाली (Par Value System )का पालन किया था। 15 अगस्त 1947 को भारतीय रुपये और अमेरिकी डॉलर के बीच विनिमय दर एक-दूसरे के बराबर (अर्थात 1USD = 1INR) थी। 

लेकिन वर्तमान समय में ऐसा क्या बदल गया है कि भारत की मुद्रा, अमेरिकी डॉलर सहित अन्य मुद्राओं की तुलना में कमजोर ही होती जा रही है। आइये इस लेख में भारत की मुद्रा के मूल्य में हाल की गिरावट के कारणों को जानते हैं। 

वर्तमान समय में डॉलर की तुलना में रुपये के मूल्य में कमी के लिए निम्न कारण जिम्मेदार हैं

1. कच्चे तेल के दामों में वृद्धि 

जैसा कि हम सभी को पता है कि भारत अपनी जरुरत का केवल 17% तेल ही पैदा करता है और बकाया का 83% आयात करता है और यही कारण है कि भारत के आयात बिल में सबसे बड़ा हिस्सा कच्चे तेल के मूल्यों का होता है। 

कंसल्टेंसी फर्म वुड मैकेंजी की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की कच्चे तेल की प्रतिदिन की मांग 2018 में वर्ष 2017 की तुलना में दुगुनी अर्थात 190,000 बैरल (1 बैरल = 159 लीटर) हो जाएगी जो कि पिछले वर्ष केवल 93,000 बैरल प्रतिदिन थी। 

भारत ने वित्त वर्ष 2016-17 में 213.93 मिलियन टन कच्चे तेल का आयात किया था जिस पर कुल 70.196 अरब डॉलर का खर्च आया था लेकिन 2017-18 में इसमें 25% की वृद्धि होने की  संभावना है और आयात बिल बढ़कर 87.725 अरब डॉलर पर पहुँच जाने की संभावना है। 

आर्थिक सर्वेक्षण 2018 का अनुमान है कि यदि कच्चे तेल की कीमत में 10 डॉलर प्रति बैरल की वृद्धि हो जाती है तो इससे भारत की GDP में 0.2-0.3 प्रतिशत की कमी आ जाती है। 

इस प्रकार तय है कि जैसे-जैसे भारत में कच्चे तेल की मांग बढ़ेगी, सरकार का आयात बिल बढेगा, इस कारण सरकार को इराक और सऊदी अरब सहित अन्य देशों को डॉलर में अधिक भुगतान करना पड़ेगा, जिससे डॉलर की मांग बढ़ेगी और इसकी तुलना में रूपए का मूल्य कम होगा। 

2. अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध 

अमेरिका ने चीन, भारत और यूरोपियन यूनियन सहित कई देशों के आयातित उत्पादों पर कर बढ़ाने का फैसला लिया है जिसके बदले में इन देशों ने भी अमेरिका के उत्पादों पर कर बढ़ा दिया है जिसके कारण इन उत्पादों की आयातित कीमतें बढ़ना लाजिमी है। 

ऐसी स्थिति में भारत द्वारा आयात की जाने वाली वस्तुओं के दाम भी बढ़ जायेंगे किसके कारण भारत को अधिक डॉलर भुगतान के रूप में खर्च करने पड़ेंगे इसका परिणाम यह होगा कि भारत द्वारा डॉलर की मांग बढ़ जायेगी, बाजार में भारतीय रुपये की पूर्ती बढ़ जाएगी और इस कारण डॉलर के मूल्यों में वृद्धि होगी और रुपये के मूल्यों में कमी. अर्थात एक डॉलर को खरीदने के लिए ज्यादा रुपये खर्च करने पड़ेंगे। 

3. भारत का बढ़ता व्यापार घाटा 

जब किसी देश का निर्यात बिल उसके आयात बिल की तुलना में घट जाता है तो इस स्थिति को व्यापार घाटा कहते हैं। वित्त वर्ष 2018 में भारत का व्यापार घाटा 156.8 अरब डॉलर हो गया है जो कि पिछले वित्त वर्ष में 105.72 अरब डॉलर था इसका सीधा सा मतलब कि भारत को डॉलर या अन्य विदेशी मुद्रा में रूप में निर्यात से जितनी आय प्राप्त हो रही है उससे ज्यादा आयात की गयी वस्तुओं और सेवाओं पर खर्च करनी पड़ रही हैअर्थात भारत के खजाने/बाजार में डॉलर कम हो रहे हैं जबकि मांग अधिक है, और “मांग के नियम” के अनुसार “जिस वस्तु की पूर्ती घट जाती है उसकी कीमत बढ़ जाती है। ”  

4. भारत से पूँजी का बहिर्गमन 

पूँजी का निकास उस दशा को कहते हैं जब भारत से विदेशी निवेशक या देश के निवेशक अपना रुपया निकालकर किसी और देश में निवेश कर देते हैं. ज्ञातव्य है कि जब भारत और विदेश के निवेशक भारत के बाजार से रुपया निकालते है तो वे दुनिया में सब जगह स्वीकार की जाने वाली मुद्रा अर्थात डॉलर में ही निकालते हैं जिसके कारण भारत में डॉलर की मांग बढ़ जाती है साथ ही इसका मूल्य भी बढ़ जाता है। 

नेशनल सिक्योरिटीज डिपोजिटरी लिमिटेड (NSDL) के आंकड़ों के मुताबिक, इस साल अप्रैल के अंत तक भारत से 244.44 मिलियन डॉलर रुपया देश के बाहर चला गया है।  जो कि इसी अवधि में पिछले साल 30.78 बढ़ा था। 

5 राजनीतिक अस्थिरता का माहौल 

जैसा कि कई सर्वेक्षणों में सामने आया है कि भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री मोदी जी की लोकप्रियता दिनों दिन घटती जा रही है इस स्थिति में विदेशी निवेशक कंफ्यूज हो रहे हैं कि अगले साल यही सरकार रहेगी या बदल जाएगी और यदि नई सरकार बन जाती है तो विदेशी निवेश की नीतियों में किस तरह का परिवर्तन होगा इस बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है लिहाजा विदेशी निवेशक भारत से बेहतर रिटर्न देने वाले देशों में निवेश करने का मन बना रहे हैं और भारत से अपना धन, डॉलर के रूप में बाहर ले जा रहे हैं।  इसका अंतिम परिणाम डॉलर के मूल्यों में वृद्धि और रुपये के मूल्यों में कमी के रूप में सामने आ रहा है।