चर्चा में क्यों?
नीति आयोग द्वारा गठित विशेषज्ञों के एक समूह ने सरकार से देश के हिमालयी राज्यों में झरना जल प्रणालियों को नुकसान से बचाने और उन्हें पुनर्जीवित करने के लिये एक समर्पित मिशन स्थापित करने का आग्रह किया है, क्योंकि ये क्षेत्र के निवासियों के लिये पीने और सिंचाई दोनों कार्य हेतु जल के स्रोत के रूप में शीर्ष प्राथमिकता रखते हैं।
प्रमुख बिंदु
देश के उत्तर और पूर्वोत्तर राज्यों में फैला हुआ और लगभग 5 करोड़ लोगों को आवास प्रदान करने वाला भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) इन प्राकृतिक भूजल स्रोतों पर काफी हद तक निर्भर है, जो विकास और जलवायु परिवर्तन से निरंतर प्रेरित शहरीकरण के कारण बढ़े हुए खतरे के अंतर्गत आता है।
विशेषज्ञ समूह ने “जल सुरक्षा के लिये हिमालय में झरनों की सूची और पुनरुद्धार” नामक अपनी रिपोर्ट में कहा, "लगभग आधे बारहमासी झरने पहले ही सूख गए हैं या मौसम आधारित हो गए हैं और हजारों गाँवों को वर्तमान में पीने तथा अन्य घरेलू उद्देश्यों के लिये पानी की कमी की विकट स्थिति का सामना करना पड़ रहा है।"
रिपोर्ट के लेखकों, जिसमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के विशेषज्ञ शामिल थे, ने रिपोर्ट में कहा कि हिमालयी क्षेत्र में छोटे आवासों के लिये जल प्रदान करने वाले लगभग 60% निम्न-निर्वहन वाले झरनों ने पिछले कुछ दशकों में स्पष्ट गिरावट दर्ज की है।
इसके अलावा हिमालय में कृषि क्षेत्र के लगभग 64% भाग को सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने के साथ ही ये प्राकृतिक झरने अक्सर इस क्षेत्र में सिंचाई के एकमात्र स्रोत होते हैं।
इस रिपोर्ट के अनुसार, 3,810 गाँवों में झरनों की उपस्थिति के साथ मेघालय में सभी पूर्वी हिमालयी राज्यों की तुलना में इन जल स्रोतों की सबसे ज्यादा संख्या थी, वहीं सबसे अधिक घनत्व सिक्किम में था जहाँ 94% गाँवों में झरने थे। पश्चिमी हिमालय में सबसे ज़्यादा 3,313 गाँवों में झरने और 50.6% का सर्वाधिक घनत्व, दोनों जम्मू-कश्मीर में थे।
शिमला का संकट
हाल ही में पहाड़ी क्षेत्र में विकट संकट की स्थिति तब स्पष्ट रूप से देखी गई जब हिमाचल प्रदेश के आधे दर्जन जिलों और राज्य की राजधानी शिमला को मुख्य जल स्रोतों के पूर्णतः या आंशिक रूप से सूख जाने के बाद इसी वर्ष मई माह में गंभीर पेयजल संकट का सामना करना पड़ा।
जबकि राज्य अधिकारियों के अनुसार, खराब जल प्रबंधन को मुख्य कारण माना गया, लेकिन इस संकट के योगदानकर्त्ता के रूप में उन्होंने झरनों से निम्न जल प्रवाह और कम बर्फ के पिघलने को भी ज़िम्मेदार ठहराया।
झरनों में प्रदूषण
रिपोर्ट में कहा गया है कि झरनों में प्रदूषण के कई स्रोत पाए गए और यह भूगर्भीय या 'प्राकृतिक' और मानवजनित या मानव निर्मित दोनों के कारण हुआ। माइक्रोबियल सामग्री, सल्फेट्स और नाइट्रेट का कारण मुख्य रूप से मानवजनित स्रोत थे एवं फ्लोराइड, आर्सेनिक व लौह से प्रदूषण का कारण मुख्य रूप से भूगर्भीय स्रोत थे।
झरनों के पानी में कोलिफोर्म बैक्टीरिया (Coliform Bacteria) सेप्टिक टैंक, घरेलू अपशिष्ट जल, पशुधन और स्रोत क्षेत्र में खाद से या झरने को जलीय चट्टानी परत से जल प्राप्त होने के कारण उत्पन्न हो सकते हैं। इसी तरह झरनों में नाइट्रेट के स्रोत का कारण सेप्टिक टैंक, घरेलू अपशिष्ट जल, कृषि उर्वरक और पशुओं से है।
झरनों के प्रंबंधन हेतु कार्य-योजना
विशेषज्ञ समूह, झरनों के प्रबंधन हेतु बहुआयामी, सहयोगी दृष्टिकोण जिसमें झरना जल प्रबंधन के मौजूदा कार्यों के साथ-साथ निकाय को व्यवस्थित रूप से और अधिक मज़बूती प्रदान करना शामिल होगा, की सिफारिश करता है।
इस कार्यक्रम को झरना जल प्रबंधन पर जल-भूविज्ञान आधारित, सामुदायिक-समर्थन प्रणाली के हिस्से के रूप में एक एक्शन-रिसर्च प्रोग्राम की अवधारणा पर प्रारूपित किया जा सकता है।
समूह ने इस पर विशेष ध्यान दिया कि “500 कस्बों और 10 शहरों की वज़ह से विकसित होते शहरीकरण के कारण भारतीय हिमालयी क्षेत्र के 60,000 से अधिक गाँवों के जल संसाधनों पर जनसांख्यिकीय दबाव बढ़ रहा है।”
यह कार्यबल झरना जल प्रबंधन का कायापलट करने के लिये 8 साल के कार्यक्रम अपनाए जाने हेतु विचार करता है। इसमें शामिल हैं: देश के झरनों के लिये डिजिटल एटलस तैयार करना, 'पैरा-हाइड्रोजियोलॉजिस्ट' को प्रशिक्षण देना जो 'झरना स्वास्थ्य कार्ड' के जमीनी स्तर पर संरक्षण और भूमिका का नेतृत्व कर सकते हैं।