Wednesday, 7 March 2018

समझें भारत पर इस्लामिक आक्रमण एकदम सरल शब्दों में

सन 632 ईस्वी में मौहम्मद साहब की मृत्यु के उपरांत छ: वर्षों के अंदर ही अरबों ने सीरिया, मिस्र, ईरान, इराक, उत्तरी अफ्रीका, स्पेन को जीत लिया था और उनका इस्लामिक साम्राज्य फ्रांस के लायर नामक स्थान से लेकर भारत के काबुल नदी तक पहुँच गया था, एक दशक के भीतर ही उन्होंने लगभग समूचे मध्य पूर्व का इस्लामीकरण कर दिया था और इस्लाम की जोशीली धारा स्पेन, फ्रांस में घुसकर यूरोप तक में दस्तक दे रही थी, अब एशिया में चीन और भारतवर्ष ही इससे अछूते थे। 

सन 712 ईस्वी में खलीफा के आदेश पर मुहम्मद बिन कासिम के नेत्रत्व में भारत के सिंध राज्य पर हमला किया गया जिसमे सिंध के राजा दाहिर की हार हुई और सिंध पर अरबों का अधिकार हो गया, इस युद्ध में सिंध की जाट जाति ने भी अरबो का साथ दिया था क्योंकि सिंध में जाटों के साथ अछूत जैसा बर्ताव होता था, किन्तु इसका उन्हें कोई लाभ नहीं मिला क्योंकि विजेता अरबों ने भी वही सामाजिक व्यवस्था बनाये रखी। 

अरबों ने इसके बाद भारत के भीतरी इलाको में राजस्थान, गुजरात तक हमले किये, पर प्रतिहार राजपूत नागभट और बाप्पा रावल गुहिलौत ने संयुक्त मौर्चा बनाकर अरबों को करारी मात दी,अरबों ने चित्तौड के मौर्य, वल्लभी के मैत्रक, भीनमाल के चावड़ा, साम्भर के चौहान राजपूत, राज्यों पर भी हमले किये मगर उन्हें सफलता नहीं मिली, दक्षिण के राष्ट्रकूट और चालुक्य शासको ने भी अरबो के विरुद्ध संघर्ष में सहायता की, कुछ समय पश्चात् सिंध पुन: सुमरा और सम्मा राजपूतो के नेत्रत्व में स्वाधीन हो गया और अरबों का राज बहुत थोड़े से क्षेत्र पर रह गया।

किसी मुस्लिम इतिहासकार ने लिखा भी है कि "इस्लाम की जोशीली धारा जो हिन्द को डुबाने आई थी वो सिंध के छोटे से इलाके में एक नाले के रूप में बहने लगी, अरबों की सिंध विजय के कई सौ वर्ष बाद भी न तो यहाँ किसी भारतीय ने इस्लाम धर्म अपनाया है न ही यहाँ कोई अरबी भाषा जानता है"

अरब तो भारत में सफल नहीं हुए पर मध्य एशिया से तुर्क नामक एक नई शक्ति आई जिसने कुछ समय पूर्व ही बौद्ध धर्म छोड़ कर  इस्लाम धर्म ग्रहण किया था। अल्पतगीन नाम के तुर्क सरदार ने गजनी में राज्य स्थापित किया, फिर उसके दामाद सुबुक्तगीन ने काबुल और जाबुल के हिन्दू शाही जंजुआ राजपूत राजा जयपाल पर हमला किया। जंजुआ राजपूत वंश भी तोमर वंश की शाखा है और अब अधिकतर पाकिस्तान के पंजाब में मिलते हैं और अब मुस्लिम हैं कुछ थोड़े से हिन्दू जंजुआ राजपूत भारतीय पंजाब में भी मिलते हैं। उस समय अधिकांश अफगानिस्तान (उपगणस्तान), और समूचे पंजाब पर जंजुआ शाही राजपूतो का शासन था। सुबुक्तगीन के बाद उसके पुत्र महमूद गजनवी ने इस्लाम के प्रचार और धन लूटने के उद्देश्य से भारत पर सन 1000 ईस्वी से लेकर 1026 ईस्वी तक कुल 17 हमले किये, जिनमे पंजाब का शाही जंजुआ राजपूत राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया और उसने सोमनाथ मन्दिर गुजरात, कन्नौज, मथुरा, कालिंजर, नगरकोट (कटोच), थानेश्वर तक हमले किये और लाखो हिन्दुओं की हत्याएं, बलात धर्मपरिवर्तन,लूटपाट हुई, ऐसे में दिल्ली के तंवर/तोमर राजपूत वंश ने अन्य राजपूतो के साथ मिलकर इसका सामना करने का निश्चय किया।

दिल्लीपति राजा जयपालदेव तोमर(1005-1021)

गजनवी वंश के आरंभिक आक्रमणों के समय दिल्ली-थानेश्वर का तोमर वंश पर्याप्त समुन्नत अवस्था में था।महमूद गजनवी ने जब सुना कि थानेश्वर में बहुत से हिन्दू मंदिर हैं और उनमे खूब सारा सोना है तो उन्हें लूटने की लालसा लिए उसने थानेश्वर की और कूच किया, थानेश्वर के मंदिरों की रक्षा के लिए दिल्ली के राजा जयपालदेव तोमर ने उससे कड़ा संघर्ष किया, किन्तु दुश्मन की अधिक संख्या होने के कारण उसकी हार हुई,तोमरराज ने थानेश्वर को महमूद से बचाने का प्रयत्न भी किया, यद्यपि उसे सफलता न मिली। और महमूद ने थानेश्वर में जमकर रक्तपात और लूटपाट की।

दिल्लीपति राजा कुमार देव तोमर(1021-1051)

सन् 1038 ईo (संo १०९५) महमूद के भानजे मसूद ने हांसी पर अधिकार कर लिया। और थानेश्वर को हस्तगत किया। दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी होने लगी। ऐसा प्रतीत होता था कि मुसलमान दिल्ली राज्य की समाप्ति किए बिना चैन न लेंगे।किंतु तोमरों ने साहस से काम लिया। 

गजनी के सुल्तान को मार भगाने वाले कुमारपाल तोमर ने दुसरे राजपूत राजाओं के साथ मिलकर हांसी और आसपास से मुसलमानों को मार भगाया। अब भारत के वीरो ने आगे बढकर पहाड़ो में स्थित कांगड़ा का किला जा घेरा जो तुर्कों के कब्जे में चला गया था। चार माह के घेरे के बाद नगरकोट(कांगड़ा)का किला जिसे भीमनगर भी कहा जाता है को राजपूत वीरो ने तुर्कों से मुक्त करा लिया और वहाँ पुन: मंदिरों की स्थापना की।

इसके बाद कुमारपाल देव तोमर की सेना ने लाहौर का घेरा डाल दिया, वो भारत से तुर्कों को पूरी तरह बाहर निकालने के लिए कटिबद्ध था। इतिहासकार गांगुली का अनुमान है कि इस अभियान में राजा भोज परमार, कर्ण कलचुरी, राजा अनहिल चौहान ने भी कुमारपाल तोमर की सहायता की थी। किन्तु गजनी से अतिरिक्त सेना आ जाने के कारण यह घेरा सफल नहीं रहा।

नगरकोट कांगड़ा का द्वितीय घेरा(1051 ईस्वी)

गजनी के सुल्तान अब्दुलरशीद ने पंजाब के सूबेदार हाजिब को कांगड़ा का किला दोबारा जीतने का निर्देश दिया, मुसलमानों ने दुर्ग का घेरा डाला और छठे दिन दुर्ग की दीवार टूटी,विकट युद्ध हुआ और इतिहासकार हरिहर दिवेदी के अनुसार कुमारपाल देव तोमर बहादुरी से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। अब रावी नदी गजनी और भारत के मध्य की सीमा बन गई।

मुस्लिम इतिहासकार बैहाकी के अनुसार "राजपूतो ने इस युद्ध में प्राणप्रण से युद्ध किया, यह युद्ध उनकी वीरता के अनुरूप था। अंत में पांच सुरंग लगाकर किले की दीवारों को गिराया गया, जिसके बाद हुए युद्ध में तुर्कों की जीत हुई और उनका किले पर अधिकार हो गया।"

इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्लीपति कुमारपाल देव तोमर एक महान नायक था उसकी सेना ने न केवल हांसी और थानेश्वर के दुर्ग ही हस्तगत न किए; उसकी वीर वाहिनी ने काँगड़े पर भी अपनी विजयध्वजा कुछ समय के लिये फहरा दी। लाहौर भी तँवरों के हाथों से भाग्यवशात् ही बच गया।

दिल्लीपती राजाअनंगपाल-II ( 1051-1081 )

उनके समय तुर्क इबराहीम ने हमला किया जिसमें अनगपाल द्वितीय खुद युद्ध लड़ने गये। युद्ध में एक समय आया कि तुर्क इबराहीम ओर अनगपाल कि आमना सामना हो गया। अनंगपाल ने अपनी तलवार से इबराहीम की गर्दन ऊडा दि थी। एक राजा द्वारा किसी तुर्क बादशाह की युद्ध में गर्दन उडाना भी एक महान उपलब्धि है। तभी तो अनंगपाल की तलवार पर कई कहावत प्रचलित हैं।

जहिं असिवर तोडिय रिउ कवालु, णरणाहु पसिद्धउ अणंगवालु ||
वलभर कम्पाविउ णायरायु, माणिणियण मणसंजनीय ||

तुर्क हमलावर मौहम्मद गौरी के विरुद्ध तराइन के युद्ध में तोमर राजपूतो की वीरता:- 
दिल्लीपति राजा चाहाडपाल/गोविंदराज तोमर (1189-1192)

गोविन्दराज तोमर पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर तराइन के दोनों युद्धों में लड़ें। पृथ्वीराज रासो के अनुसार तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था। जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी हारकर भाग रहा था। भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था। जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया। हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं।
पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारे गए।

तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई)

दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा, जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया, इन्हीं के पास पृथ्वीराज चौहान की रानी (पुंडीर राजा चन्द्र पुंडीर की पुत्री) से उत्पन्न पुत्र रैणसी उर्फ़ रणजीत सिंह था, तेजपाल ने बची हुई सेना की मदद से गौरी का सामना करने की गोपनीय रणनीति बनाई, युद्ध से बची हुई कुछ सेना भी उसके पास आ गई थी। मगर तुर्कों को इसका पता चल गया और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया। इस हमले में रैणसी मारे गए।

इसके बाद भी हांसी में और हरियाणा में अचल ब्रह्म के नेत्रत्व में तुर्कों से युद्ध किया गया, इस युद्ध में मुस्लिम इतिहासकार हसन निजामी किसी जाटवान नाम के व्यक्ति का उल्लेख करता है जिसे आजकल हरियाणा के जाट बताते हैं जबकि वो राजपूत थे और संभवत इस क्षेत्र में आज भी पाए जाने वाले तंवर/तोमर राजपूतो की जाटू शाखा से थे।

इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्ली के तोमर राजवंश ने तुर्कों के विरुद्ध बार बार युद्ध करके महान बलिदान दिए किन्तु खेद का विषय है कि संभवत: कोई तोमर राजपूत भी दिल्लीपति कुमारपाल देव तोमर जैसे वीर नायक के बारे में नहीं जानता होगा जिसने राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए अपने राज्य से आगे बढकर कांगड़ा, लाहौर तक जाकर तुर्कों को मार लगाई और अपना जीवन धर्मरक्षा के लिए न्योछावर कर दिया।

दिल्ली के तोमर राजवंश की वीरता को समग्र राष्ट्र की और से शत शत नमन।

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सन्दर्भ---
1-राजेन्द्र सिंह राठौर कृत राजपूतो की गौरवगाथा पृष्ठ संख्या 113,116,117
2-डा० अशोक कुमार सिंह कृत सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध पृष्ठ संख्या 48,68,69,70
3-देवी सिंह मंडावा कृत सम्राट पृथ्वीराज चौहान पृष्ठ संख्या 94-98
4-दशरथ शर्मा कृत EARLY CHAUHAN DYNASTIES
5-महेंद्र सिंह तंवर खेतासर कृत तंवर/तोमर राजवंश का सांस्कृतिक एवम् राजनितिक इतिहास।
6- टीम 'एकअवाज ऐटिन' इनपुट