लाभ के पद' (Office of Profit) का मतलब उस पद से है, जिस पर रहते हुए कोई व्यक्ति सरकार की ओर से किसी भी तरह की सुविधा लेने का अधिकारी हो। अगर इसके सिद्धान्त और इतिहास की बात करें, तो इसकी शुरूआत ब्रितानी कानून' 'एक्ट्स ऑफ यूनियन, 1701' में देखी जा सकती है। इस कानून में कहा गया है कि अगर कोई भी व्यक्ति राजा के अधीन किसी पद पर कार्यरत् रहते हुए कोई सेवा ले रहा है या पेंशनभोगी है, तो वह व्यक्ति हाउस ऑफ कामंस का सदस्य नहीं रह सकता।
भारतीय संविधान की बात करें, तो संविधान के अनुच्छेद 191(1)(ए) के मुताबिक, अगर कोई विधायक या सांसद किसी लाभ के पद पर पाया जाता है, तो विधान सभा में उसकी सदस्यता अयोग्य करार दी जा सकती है।
विशेषज्ञों के मुताबिक संविधान में यह धारा रखने का उद्देश्य विधान सभा को किसी भी तरह के सरकारी दबाव से मुक्त रखना था, क्योंकि अगर लाभ के पदों पर नियुक्त व्यक्ति विधान सभा का भी सदस्य होगा, तो इससे प्रभाव डालने की कोशिश हो सकती है।
संविधान के अनुच्छेद 102(1)(ए) के तहत् सांसद या विधायक ऐसे किसी और पद पर नहीं हो सकता, जहां वेतन, भत्ते या अन्य फायदे मिलते हों। इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 191(1)(ए) और जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 9(ए) के तहत् भी ऑफिस ऑफ प्रॉफिट में सांसदों-विधायकों को अन्य पद लेने से रोकने का प्रावधान है। संविधान की गरिमा के तहत् 'लाभ के पद' पर बैठा कोई व्यक्ति उसी वक्त विधायिका का हिस्सा नहीं हो सकता।
इसका महत्त्व क्या है?
● यह अवधारणा संसद व राज्य विधानसभा के सदस्यों की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखती है।
● यह विधायिका को कार्यपालिका से किसी अनुग्रह या लाभ प्राप्त करने से रोकती है।
● यह विधायी कार्यों व किसी भिन्न पद के कर्त्तव्यों में होने वाले टकराव को रोकती है।