Wednesday 14 March 2018

बढ़ती बेरोजगारी, और सत्ताधारियों की बेशर्मी


लेख शुरुआत करने के पहले यहाँ हम आपको बताते चलें की न ही तो हम सत्ताधारी (सरकार) बिरोधी हैं और न ही समर्थक बस इतना जरुर है की जो गलत है वो गलत है। लेख थोड़ा लम्बा हो सकता है क्योंकि बिषय ही ऐसा है जिनके पास धैर्य हो वह ही इस लेख को पढ़े।

ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के अनुसार बेरोजगारी की बढ़ती दर के मामले में भारत 8.0 प्रतिशत की दर के साथ एशिया में पहले स्थान पर पहुँच गया है। उप-राष्ट्रपति के पद को शोभायमान कर रहे वंकैया नायडू ने हालिया दिनों में बयान दिया था कि सभी को सरकारी नौकरी नहीं दी जा सकती व स्वरोजगार भी काम ही है तथा साथ ही कह दिया कि चुनाव में हर पार्टी रोजगार देने जैसे वायदे कर ही दिया करती है, तो कहने का मतलब भाजपा ने भी तो इसी गौरवशाली परम्परा को ही आगे बढ़ाया है! ‘न्यूज रूम’ से लेकर राज्यसभा और वहाँ से लेकर नेताओं-मन्त्रियों और सरकारी भोंपुओं के दरबारों तक हर जगह पकौड़े का खूब  महात्म्य गाया जा रहा है। और हमारे सेना पति (भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष) अमित साह का कहना है की बेरोजगारी से अच्छा है पकौड़े बेचा जाए। हमारे देश के चौकीदार (हमारे प्रधानमंत्री) का कहना है:- भाइयों-बहनों अब अच्छे दिन आ गए, अब वो दिन दूर नहीं जब आपलोग सन् ........ में ....... यहाँ तक पहुँच जाओगे, आपलोगों को ...... मिलेगा, आपलोग पूरी दुनिया पर ........ करोगे। "साहब! हमें अब सन् ........ (भविष्य) में हम क्या हासिल कर लेंगे ये न दिखलाइये, वर्त्तमान में क्या कर सकते हैं कृपा करके ये तो हमें करके दिखलाइये 
                    
      "साहब, आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी 
         लेकिन, हम गरीबों की नजर में इक कहर है जिंदगी!


आप बेशक मशहूर शायर दुष्यन्त कुमार के विचारों से इत्तेफाक न रखते हों, पर उनका एक शेर हुक्मरानों की अच्छी कलई खोलता है। शेर है – ‘कहाँ तो तय था चरागाँ हर घर के लिए / कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए’। हालिया अखबारी खबरों के हवाले से यह बात सामने आयी है कि केन्द्र में बैठी भाजपा नीत राजग सरकार पाँच साल से खाली पड़े पदों को समाप्त करने की ठान चुकी है / तेजी से कम कर रही है। केन्द्र सरकार के द्वारा कुल 36 लाख 33 हजार 935 पदों में से 4 लाख 12 हजार 752 पद खाली पड़े हैं तथा इनमें से करीब आधे पद खाली हैं। कहाँ तो चुनाव से पहले करोड़ों रोजगार देने के ढोल बजाय जा रहे थे कहाँ अब खाली पदों पर काबिल युवाओं को नियुक्त करने की बजाय पदों को ही समाप्त करने के लिए कमर कस ली गयी है। और जो भी कुछ गिने-चुने पदों पर बहाली हो रही है उसमें भी बड़े स्तर पर धांधली हो रही है। हद तो ये हो गयी है इस बार UPSC से निकलने वाली रिक्तियों में भारी कटौती की गयी। देश के प्रधानमन्त्री से लेकर सरकार के आला मन्त्रीगण बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि ‘शाम तक 200 रुपये के पकौड़े बेचना भी काफी बेहतर रोजगार है’ और इसके लिए भी सरकार बहादुर अपनी पीठ थपथपा रही है! अब ‘मरता क्या न करता’ अपना और अपने बच्चों का पेट भरने के लिए ...... करके और किसी-न-किसी तरह छोटे-मोटे काम काम-धन्धे करके जैसे-तैसे लोग गुजर-बसर कर रहे हैं, किन्तु आम जन की हालत का मजाक उड़ाते हुए बेशर्म सत्ताधारियों द्वारा कहा जा रहा है कि ‘स्वरोजगार भी तो नौकरी ही है। नौकरी के लिए सरकार का मुँह ताकने की क्या जरूरत है?’ लेकिन बजट बनाते समय करों का बोझ जब जनता की कमर पर लादना हो तब सरकार को कतई अहसास नहीं होता कि यह जो जनता की जेब से एक-एक दमड़ी निचोड़ी जा रही है, इसके बदले में जनता को वापस कुछ देने का भी फर्ज बनता है! आम मेहनतकश लोग व्यवस्था का बोझ भी उठायें और कुछ माँग भी न करें! यह कहाँ का न्याय है? अगर आज आम जनता अगर बैंको से लोन लेने जाए तो ना जाने कितने तरीके के कागजात, गारंटर,......... और उसके बाद भी बैंक कर्मचारी को अलग से चढ़ाबा। ये सब के बाद भी आपको जितनी राशि आपको चाहिए उतनी नहीं मिलेगी बल्कि उसके 60-70% ही मिलेगी बह भी उच्च इंटरेस्ट पर और वहीं ..........., जैसे लोगों को .......! इसमें सभी मजे मारते हैं चाहे वह सत्ताधारी हो या बिरोधी या तथाकथित बड़े बाबू और आम जनता ..........। आज देश एक अभूतपूर्व दौर से गुजर रहा है। शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार के हालात भयंकर बुरे हैं, किन्तु दूसरी और साम्प्रदायिक और जातीय दंगों को बढ़ावा दिया जा रहा है। खुद सरकार में बैठे नेतागणों में से भी बहुत सारे दंगों की आँच में अपनी रोटियाँ सेंकते नजर आ रहे हैं। हाल ही में हुए गुजरात चुनाव प्रचार में सबके सामने आ गया है कि “विकास” व “गुजरात मॉडल” के नाम पर झूठ बोलकर लोगों को अब नहीं ठगा जा सकता, इसलिए वोट की राजनीति में लोगों को बरगलाने के लिए या ध्यान भटकाने के लिए एक अलग तरह की राजनीति का आगाज हो चूका है। 

देश में लम्बे समय से बेरोजगारी का संकट बढ़ता ही चला जा रहा है। तमाम सरकारें आयीं और चली गयीं, किन्तु आबादी के अनुपात में रोजगार बढ़ना तो दूर उल्टा घटते चले गये। सरकारी नौकरियाँ नाममात्र के लिए निकल रही हैं, सार्वजनिक क्षेत्रों की बर्बादी जारी है। केन्द्र और राज्यों के स्तर पर लाखों-लाख पद खाली पड़े हैं। भर्तियों को लटकाकर रखा जाता है, सरकारें भर्तियों की परीक्षाएँ करने के बाद भी उत्तीर्ण उम्मीदवारों को नियुक्तियाँ नहीं देतीं! परीक्षाएँ और इण्टरव्यू देने में युवाओं के समय, स्वास्थ्य दोनों का नुकसान होता है तथा आर्थिक रूप से परिवार की कमर ही टूट जाती है। नये रोजगार सृजित करने का वायदा निभाने की बात तो दूर की है, सरकारें पहले से मौजूद लाखों पदों पर रिक्तियों को ही नहीं भर रही हैं। सरकारी खजाने से नेताओं, मन्त्रियों, नौकरशाहों की सुरक्षा और ऐयाशी पर खर्च होने वाले अरबों रुपये अप्रत्यक्ष करों के रूप में हमारी जेबों से ही वसूले जाते हैं, तो क्या बदले में हमें शिक्षा-रोजगार की बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं मिलनी चाहिए? उल्टे आज महँगाई लोगों की कमर तोड़ रही है, व्यापक जनता के लिए रोजगार ‘आकाश कुसुम’ हो गये हैं, कॉर्पोरेट घरानों के सामने सरकारें दण्डवत हैं तथा सत्ता के ताबेदारों ने बड़ी ही बेहयाई के साथ बेरोजगारी के घाव को कुरेद-कुरेदकर नासूर बना दिया है। यह याद रहे इतिहास गवाह है:- हिटलर को लगा की वह अपने देश के लिए बहुत ही अच्छा कार्य कर रहा है और वह उस समय वहाँ की जनता की एक बड़ी भीड़ को समझाने में सफल भी रहा। लेकिन हुआ क्या अन्तोगत्व वह अपने साथ-साथ अपने देश को भी बिनाश कर बैठा।

बेरोजगारी की भयंकरता की कहानी, कुछ आँकड़ों की ज़ुबानी !

रोजगारहीनता के मामले में आम जनता कम-से-कम स्वयं को तो कोसना बन्द ही कर दे! बहुत समय नहीं हुआ जब राज्यसभा में कैबिनेट राज्यमन्त्री जितेन्द्र प्रसाद ने माना था कि कुल 4,20,547 पद तो अकेले केन्द्र में खाली पड़े हैं। देश-भर में प्राइमरी-अपर-प्राइमरी अध्यापकों के करीब 10 लाख पद, पुलिस विभाग में 5 लाख 49 हजार 25 पद, 47 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में 6 हजार पद, 363 राज्य विश्वविद्यालयों में 63 हजार पद रिक्त हैं, विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार चलने पर तो देश भर में 5 लाख डॉक्टरों की तुरन्त जरूरत है, इन मानकों को पूरा करना तो दूर की कौड़ी है, यदि 36 हजार सरकारी अस्पतालों के 2 लाख से ज्यादा खाली पड़े डॉक्टरों के पदों पर न्युक्तियाँ कर दी जायें तो गनीमत हो। यही नहीं 11,500 मनोचिकित्सकों के पद भी खाली पड़े हैं। केन्द्र और राज्यों के स्तर पर करीब बीसियों लाख पद खाली हैं। एक ओर पाखण्डी गोबर-गणेशों को भारत “विश्वगुरू” बनता दिख रहा है, दूसरी ओर यहाँ शिक्षण संस्थानों और अस्पतालों में आधे से अधिक पद तो खाली ही पड़े हैं! भाजपा के दिग्गजों ने कभी एक करोड़ तो कभी दो करोड़ रोजगार देने के चुनावी जुमले उछाले थे, किन्तु साढ़े तीन साल बीत जाने के बाद आधिकारिक श्रम ब्यूरो के आँकड़ों के मुताबिक सिर्फ  5 लाख नयी नौकरियों को जोड़ा गया है। वर्ष 2012 में भारत की बेरोजगारी दर 3.8 प्रतिशत थी जो 2015-16 में 5 प्रतिशत पहुँच गयी। श्रम ब्यूरो सर्वेक्षण 2013-14 और 2015-16 के बीच 37.4 लाख नौकरियों की कमी दर्शाता है। र्इपीडब्ल्यू के एक लेख के मुताबिक रोजगार में कमी 53 लाख तक पहुँच गयी है। केन्द्रीय श्रम मन्त्रालय के आँकड़ों के मुताबिक वर्ष 2015 और 2016 में क्रमश: 1.55 लाख और 2.31 लाख (पिछले आठ सालों में सबसे कम) नयी नौकरियाँ सृजित हुईं। 1991 में लागू की गयी उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों ने रोजगार पर ग्रहण लगाना शुरू कर दिया था, मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2009 में 10 लाख नयी नौकरियाँ सृजित हुई थीं, जोकि ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ थीं किन्तु इसके बाद तो हालत बद से बदतर होती चली गयी। सर्वे बताते हैं कि मोदी राज में संगठित-असंगठित क्षेत्र में 2 करोड़ रोज़गार छीने गये हैं। सांख्यिकी मन्त्रालय के आँकड़ों की मानें तो भारत में 15 से 29 बरस के बीच की आयु के 33,33,65,000 युवा हैं। ‘ओईसीडी’ की रिपोर्ट कहती है कि कुल युवाओं की उक्त संख्या में से 30 प्रतिशत न तो पढ़ाई करते हैं और न ही कोई नौकरी। साल 2013 के श्रम और रोजगार मन्त्रालय के ही एक आँकड़े के अनुसार ग्रामीण और शहरी स्नातक (ग्रेजुएट) युवाओं में क्रमशः 36.4 प्रतिशत और 26.5 प्रतिशत बेरोज़गारी दर अनुमानित है। सरकारी आँकड़ों की सीमा को समझते हुए प्रच्छन्न और अर्ध-बेरोजगारों को जोड़ दें तो बेरोज़गारों का असल आँकड़ा 25 करोड़ से भी ज़्यादा बैठेगा। सरकार ने इन सब आंकड़ों का भी तोड़ निकाल लिया है,अब अगले वर्ष से आधिकारिक श्रम ब्यूरो के द्वारा कोई भी बेरोजगारी से आँकड़े पेश नहीं किये जायेंगे यानी जब आंकड़े ही नहीं तो .............। 

जरा एक नजर उन भर्तियों पर डाल लें, जिन्हें अधर में लटकाकर रखा गया है या फिर पूरा तो कर दिया गया, किन्तु नियुक्ति का कहीं कुछ अता-पता नहीं है। 2016 में करीब 15 लाख अभ्यार्थियों ने एसएससी-सीजीएल की परीक्षा दी थी। 10,661 का नौकरी के लिए चुनाव हुआ, 5 अगस्त 2017 को नतीजा भी आ गया किन्तु अब तक नियुक्ति नहीं हो रही है। हरियाणा कर्मचारी चयन सेवा आयोग की 2015 में नौकरियाँ निकली थीं, परीक्षा होकर नतीजा आने में दो वर्ष लग गये पर नियुक्ति यहाँ भी नदारद है। हरियाणा में ही 2015 में पीजीटी स्कूल अध्यापक की भर्ती निकली जिसकी परीक्षा तो किसी तरह से हो गयी किन्तु अभी तक साक्षात्कार नहीं हो सका है। इसी प्रकार 2015 में रेलवे में गैर-तकनीकी पदों हेतु 18 हजार की भर्ती का विज्ञापन आया था, परीक्षा प्रक्रिया के बीच में ही 4 हज़ार पदों को कम कर दिया गया। इस भर्ती को भी दो साल गुज़र गये किन्तु मेडिकल होना अभी बाक़ी ही है। आरआरबी मुम्बई भर्ती की अगस्त 2015 में परीक्षा हुई और 30 नवम्बर 2017 को परिणाम भी आ गया किन्तु नियुक्ति के लिए अभ्यार्थी अभी तक पलक-पाँवड़े बिछाये हुए हैं। एसएससी सीपीओ का जनवरी 2016 में विज्ञापन आया पर पेपर लीक होने के कारण परीक्षा टाल दी गयी, फिर दोबारा परीक्षा हुई तथा पूरी प्रक्रिया होने के बाद सितम्बर 2017 में परिणाम निकला किन्तु अभी तक नियुक्ति नहीं हुई है। इसी तरह से एसएससी सीएचएसएल की 2015 में प्री की परीक्षा हुई, मुख्य परीक्षा व टाइपिंग टेस्ट में 2 साल गुजर गये और अन्तिम परिणाम अक्टूबर 2017 को आया, किन्तु नियुक्ति के नाम पर वही ‘ढाक के तीन पात’। इसी प्रकार यूपी लोक सेवा आयोग ने 2013 में राज्य स्तर पर इंजीनियरिंग की परीक्षा के लिए फ़ॉर्म निकाले थे, जैसे-तैसे परीक्षा 2015 में हो गयी किन्तु सरकार बदल गयी पर परीक्षा परिणाम के इन्तज़ार में अभ्यार्थियों की उम्र पाँच बरस बढ़ चुकी है। उत्तराखण्ड में अप्रैल 2015 में सहायक अभियन्ता की परीक्षा हुई किन्तु परीक्षा परिणाम का यहाँ भी कुछ अता-पता नहीं है। दिल्ली सेलेक्शन बोर्ड की 2015 में फार्मास्यूटिकल की भर्ती निकली, जिसकी 2015 में परीक्षा हुई जिसका परिणाम तो आ गया किन्तु नियुक्ति के मामले में परिणाम शून्य। इसी तरह बिहार में बीपीएससी 56-59 का 17 महीने से परीक्षा का अंतिम परिणाम नहीं आया है किन्तु अगली भर्ती यानी बीपीएससी 60-62 की परीक्षा की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है तथा बीपीएससी 63 के फॉर्म भरे जा चुके हैं। बिहार कर्मचारी आयोग ने 2014 में फॉर्म भरवाया था और इसके बारे में तो जग जाहिर है।   झारखण्ड लोकसेवा आयोग के ढंग तो और भी निराले हैं। यहाँ 17 साल में कुल पाँच बार परीक्षा हुई है जिसमें से भी दो बार की परीक्षा रद्द हो गयी! छठी परीक्षा का फ़ॉर्म 2015 में निकला जिसकी तारीख़ तीन बार बढ़ायी गयी; मर-पड़ कर 18 दिसम्बर 2016 को प्री की परीक्षा हुई फिर मेंस की परीक्षा की तारीख़ भी दो बार बढ़ायी गयी किन्तु फिर भी परीक्षा अभी तक नहीं हुई है! 2015 की भर्ती 2018 तक भी पूरी हो जाये तो गनीमत हो। दोस्तो! अटकी पड़ी भर्तियों के ये तो कुछ प्रातिनिधिक उदाहरण ही सामने हैं!

दिल्ली में 2013 में 9.13 लाख बेरोजगार थे जोकि 2014 में बढ़कर 10.97 लाख हो गये। यही नहीं 2015 में इनकी संख्या 12.22 लाख हो गयी। नोटबन्दी और जीएसटी के बाद के हालात तो सामने ही हैं, जब दिल्ली में ही लाखों लोगों के मुँह से निवाला छीन लिया गया। आम आदमी पार्टी ने 55,000 खाली पदों को तुरन्त भरने और ठेका प्रथा खत्म करने की बात की थी, किन्तु रोजगार से जुड़े तमाम मामलों में यहाँ भी वही ‘ढाक के तीन पात’ हैं। हरियाणा में रोजगार के हालात की बात करें तो 1966 में यहाँ रोजगार दफ्तर में कुल 36,522 लोगों के नाम दर्ज थे जोकि 2009 में बढ़कर 9,60,145 हो गये। यह तो 2017 की ही बात है जब मदवि, रोहतक में चपरासी के मात्र 92 पदों के लिए 22 हजार अभ्यार्थियों ने आवेदन किया था। एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार स्कूल अध्यापकों के कुल 1 लाख 28 हजार 791 पदों में से 52 हज़ार 675 पद रिक्त पड़े हैं। लाखों युवा डिग्रियों का गट्ठर लेकर घूम रहे हैं पर हरियाणा के मुख्यमन्त्री खट्टर के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही। हरियाणा में  लाखों युवाओं को रोजगार के अवसर मुहैया कराने का वायदा करने वाली भाजपा सरकार अब कभी तो ......... और कभी पाखण्ड रचने लगती है!

देश की जनता के साथ भारतीय राज्य का छल

भारतीय राज्य और सरकारें देश के संविधान को लेकर खूब लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं। संविधान का अनुच्छेद 14 कहता है कि ‘सभी को समान नागरिक अधिकार’ मिलने चाहिए और अनुच्छेद 21 के अनुसार ‘मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार’ सभी को है। किन्तु ये अधिकार देश की बहुत बड़ी आबादी के असल जीवन से कोसों दूर हैं। क्योंकि न तो देश स्तर पर एक समान शिक्षा-व्यवस्था लागू है तथा न ही देश में करोड़ों लोगों के लिए पक्के रोजगार की कोई गारण्टी है। हर काम करने योग्य स्त्री-पुरूष को रोजगार का अधिकार मिलना ही सही मायने में उसका ‘जीने का अधिकार’ है। मनरेगा में सरकार ने पहली बार माना था कि रोजगार की गारण्टी देना उसकी जिम्मेदारी है किन्तु यह योजना भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी। न केवल ग्रामीण और न केवल 100 दिन बल्कि हरेक के लिए उचित जीवनयापन योग्य पक्के रोजगार के प्रबन्ध की जिम्मेदारी सरकारों की बनती है, यह हमारा जायज हक है। जिसका सीधा सा कारण यह है कि सरकारी खजाने का बहुत बड़ा हिस्सा जनता से आने वाले अप्रत्यक्ष करों से भरता है। यदि सरकारें जनता को शिक्षा-रोजगार-चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाएँ तक नहीं दे पाती तो फिर ये हैं ही किसलिए? पूँजीपतियों को तो करोड़ों-अरबों रुपये और सुविधाएँ खैरात में मिल जाते हैं, बैंकों का अरबों-खरबों रुपये धन्नासेठों के द्वारा बिना डकार तक लिये निगल लिया जाता है। दूसरी तरफ आम गरीब लोगों को व्यवस्था का शिकार बनाकर तबाही-बर्बादी में धकेल दिया जाता है!

क्या किया जाये ?

जरा दिमाग पर जोर  डालकर सोचने पर हम समझ सकते हैं कि सभी को रोजगार देने के लिए तीन चीजें  चाहिए (1) काम करने योग्य हाथ (2) विकास की सम्भावनाएँ (3) प्राकृतिक संसाधन। क्या हमारे यहाँ इन तीनों चीजों की कमी है? अब सवाल सरकारों की नीयत पर उठता है।  असल बात यह है कि मौजूदा तमाम चुनावी पार्टियों का मकसद ही आम जनता को ठगना है।   केवल और केवल अपनी एकजुटता के बल पर शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार से जुड़े अपने हक-अधिकार हासिल किये जा सकते हैं। छात्रों-युवाओं और मेहनतकशों को इस बात को गहराई से समझना होगा। गैरजरूरी मुद्दों पर झगड़ों-दंगों से कोई फायदा नहीं होगा। इन बातों को जितना जल्दी समझ लिया जाये उतना बेहतर होगा वरना आने वाली पीढ़ियों के सामने जवाब देने के लिए हमारे पास शब्द नहीं होंगे!

                                                                                                                                     लेखक 
                                                                                                                                   राज रंजन